मध्यप्रदेश में किसानों का प्रदर्शन चल रहा था. प्रदर्शन हिंसक हुआ. CRPF ने फायरिंग की. जब शुरुआती खबर आई तब छह किसान मारे गए. आठ घायल हुए. इस बीच किसानों और एसपी-कलेक्टर के बीच हिंसक झड़प की खबरें आई, जिसमें कलेक्टर के कपड़े फाड़ दिए गए. किसानों की इन मौतों से 19 साल पहले की ऐसी ही घटना याद आती है. मुलताई गोलीकांड की. जिसे अब भी एमपी वाले याद करते हैं और सिहरते हैं. 12 जनवरी 1998 को मुलताई तहसील के सामने किसानों पर गोली चलाई गई. जिसमें दो दर्जन के लगभग लोग मारे गए थे.
एमपी के नक़्शे में देखें तो सबसे नीचे बीच की तरफ बैतूल है. वहीं एक छोटी सी नगर पालिका है, मुलताई. बॉर्डर पर है तो जंगल महाराष्ट्र के अमरावती से भी छूते हैं. महाराष्ट्र के इतना करीब कि हवाई जहाज भी चढ़ना है तो आप 120 किलोमीटर पास के नागपुर जा सकते हैं. दिसंबर 1997 और उसके कुछ पहले की बात है. गेरुआ बीमारी का असर फसलों पर पड़ा. रही-सही कसर बेमौसम की ज्यादा बरसात ने निकाल दी. ओले भी पड़े. सोयाबीन की पूरी फसल बर्बाद हो गई.
किसानों ने कोशिश की कि राष्ट्रीय पार्टी के नेताओं से मिले. या कोई छोटे नेता ही उन्हें मिलें जिनके जरिये वो अपनी बात ऊपर तक पहुंचा सके. ये सब तो हुआ नहीं हां एक रोज़ जनता दल का प्रशिक्षण शिविर लेने डॉ. सुनीलम उनके एरिया में आए. वहीं बैतूल के परमंडल गांव के किसान उनसे मिलने जा पहुंचे. समस्याएं बताई. सुनीलम ने देखा कि सोयाबीन की फसल तो सिरे से खत्म हो रखी है. और किसानों की कोई सुन नहीं रहा. तो उन्होंने क्रिसमस के रोज़ 25 दिसंबर 1997 से मुलताई तहसील के सामने एक अनिश्चितकालीन धरना देना शुरू किया. इसी के साथ-साथ 400 गांवों का दौरा किया और किसानों और किसान नेताओं को ओने साथ लाए. एक किसान संघर्ष समिति बनी. सारे नेता जुटे और तय हुआ कि एक महापंचायत बुलाई जाए जहां सारे किसान नेता जुटें. लोगों को लाएं. एक मांगपत्र बनाया जाए और सरकार पर इस चीज का दबाव डाला जाए कि किसानों की बात सुनें.
नतीजा ये कि 9 जनवरी 1998 के रोज़ बैतूल पुलिस ग्राउंड के मैदान में जिले भर से 20000 से ज्यादा किसान जुटे. कुछ लोग बताते हैं ये संख्या 22000 के आसपास रही होगी. मुलताई और बैतूल के मामले में ये संख्या बड़ी मानी जानी चाहिए. ऐसे समझिए कि 2001 की जनगणना में बैतूल की जनसंख्या लगभग 13 लाख और मुलताई की जनसंख्या 21 हजार हुआ करती थी. उस रोज़ मांगपत्र में कहा गया कि हर किसान को एक एकड़ के बदले 5000 रुपये हर्जाना दे दिया जाए. बताते हैं कलेक्टर सुधार की कोशिश के तौर पर वहां आए और 400 रुपये एकड़ के हिसाब से हर्जाना देने का प्रस्ताव रखा था. जिसे किसानों ने वहीं के वहीं मना कर दिया. किसानों का कहना था कि इसके अलावा उन्हें आधी कीमत पर राशन दिया जाए. खाद-बीज और कीटनाशक का क़र्ज़ माफ़ कर दिया जाए. सोसायटी का जो खर्च है भी उसे न वसूला जाए. और बैतूल उस रोज़ ये भी तय हुआ कि अगर 2 दिन के अंदर 11 जनवरी 1998 तक ऐसा नहीं हुआ तो किसान आंदोलन और तेज होगा. 12 जनवरी को मुलताई तहसील के कार्यालय पर ताला डाला जाएगा.
9 से 12 जनवरी के बीच एक घटना और घट गई. मुलताई से 10 किलोमीटर दूर 11 जनवरी को राज्य परिवहन निगम की दो बसें जला दी गईं. जो आगे की हिंसा की जमीन तैयार कर गईं. इस पर किसान आंदोलन से जुड़े लोग ये इल्जाम लगाते हैं कि ये काम भी कांग्रेस के लोगों का था. झगड़ा उन्होंने किया, और बदले में पुलिस ने आंदोलन से जुड़े लोगों को पकड़कर बंद कर दिया. ऐसा नहीं है कि किसान हिंसक नहीं रहे या उनकी तरफ से सब बेहतर ही था. इसके पहले भी किसानों का झगड़ा हो चुका था. 8 जनवरी के दिन तहसील मुख्यालय पर प्रदर्शन कर रहे किसान लोगों ने एक बस को आग लगा दी थी. एसडीएम से भी बदसलूकी की गई थी. एक दिन बाद किसान जिला मुख्यालय पर प्रदर्शन करने गए. वहां पर भी पुलिस के अफसरों से झूमाझटकी की गई थी.
माहौल गरम था. अखबारों ने जैसा रिपोर्ट किया उसके मुताबिक़ प्रशासन की ओर से कोई सुगबुगाहट नहीं थी. उस वक़्त बैतूल के कलेक्टर रजनीश वैश्य हुआ करते थे, एसपी जीपी सिंह थे. इधर भीड़ जुटनी शुरू हो गई. नारेबाजी होने लगी और 12 जनवरी को दोपहर 1 बजे तहसील कार्यालय को घेर लिया गया. किसानों की तरफ पथराव शुरू हो गया. जिसके बदले में पुलिस ने भी आंसू गैस और लाठीचार्ज शुरू कर दिया. आरोप लगते हैं बिना किसी पूर्व सूचना के या बिना किसी घोषणा के, बिना माइक से लाउडस्पीकर पर आवाज लगाए. पुलिस ने फायर खोल दिए. अखबारों ने इस घटना की तुलना जलियांवाला बाग हत्याकांड से की थी. मौके पर ही 17 लोग मारे गए जिनमें एक स्कूली बच्चा भी था. क्रिकेट खेलकर लौट रहे कुछ लड़के भी इस हमले में घायल हुए. मरने वालों का आखिरी आंकडा 24 क्लेम किया जाता है. लगभग 150 से ज्यादा लोग उस दिन घायल हुए थे. भीड़ के हमले में बैतूल नगर पालिका के फायरब्रिगेड का ड्राइवर भी मारा गया. जिसे लोगों ने पीट-पीटकर मार डाला था.
उस समय राज्य में सरकार कांग्रेस की थे. मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह थे. जिस वक़्त मुलताई में गोलीकांड हो रहा था, उसी किसी समय पर झाबुआ में दिग्विजय सिंह कांग्रेस के लिए चुनाव प्रचार की शुरुआत कर रहे थे. उस रोज़ हुई गड़बड़ की एक वजह और बताई जाती है. उसी दिन कांशीराम की सभा भी थी.जिसके कारण प्रशासन का ध्यान बनता हुआ था. कुछ लोगों ने ये क्लेम भी किया कि कांशीराम की सभा से लौट रहे कुछ लोगों ने पुलिस पर पथराव किया जिससे स्थिति बिगड़ गई. लोगों ने बताया कि बसपा नेता कांशीराम की रैली से लोग लौट रहे थे. भीड़ बढ़ गई थी. तभी कुछ लोगों ने एक-दो पत्थर पुलिस की तरफ फेंक दिए. जिसके बाद पुलिस तहसील के पास जुट गई और आंसू गैस की स्थिति बन गई. आरोप तो ये भी लगे थे कि जब गोलीबारी हुई और बचे हुए घायल पास के अस्पताल में इलाज के लिए गए तब पुलिस ने वहां घुस-घुसकर उन्हें मारा था.
अथॉरिटीज ने शुरुआत में मारे गए लोगों की संख्या सिर्फ सात बताई थी. और कहा कि 50 पुलिस वालों के साथ लगभग 56 गांववाले घायल हुए हैं. ये भी कहा गया कि मौके पर लगभग 10,000 लोग इकट्ठा थे. उस घटना के बाद पूर्व मुख्यमंत्री सुन्दरलाल पटवा मुख्यमंत्री निवास के सामने एक दिन के निर्जल मौन उपवास पर बैठ गए थे. फिर उपवास को बढाया और आमरण अनशन में बदल दिया. लेकिन 19 जनवरी आते-आते आमरण अनशन भी आता जाता रहा. यहां ध्यान रखा जाए कि यही सारे नेता 15 दिन से चल रहे इस आंदोलन को पूछने तक नहीं आए थे. जिसके कारण इन पर आरोप लगा कि ये मौतों से पॉलिटिकल माइलेज लेने की कोशिश कर रहे हैं. बीजेपी ने भी ताजा-ताजा छिंदवाड़ा लोकसभा का उपचुनाव जीता था. किसानों के बहाने वो भी बैतूल, जबलपुर और होशंगाबाद जैसी सीटों को लगे हाथ साधना चाहती थी.
बाद के सालों में एमपी के राज्यपाल रहे बलराम जाखड जो तब पूर्व केंद्रीय मंत्री की हैसियत से कांग्रेस हाईकमान के बनाए जांच दल में मुलताई गए थे. लौटे तो बताया कि गलती प्रशासन की थी. नतीजा ये हुआ कि दिग्विजय सरकार ने कलेक्टर रजनीश वैश्य और एसपी जीपी सिंह को हटा दिया. प्रशासनिक जांच के फौरी आदेश भी दे दिए गए. हालांकि किसानों के मामले में सरकार का स्टैंड तब भी वैसा ही ढुलमुल रहा. कहा गया कि किसान जो मांगे रख रहे हैं पूरी नहीं हो सकती हैं. क्योंकि सरकार के वश में नहीं है. तबकेंद्रीय वित्तमंत्री पी. चिदंबरम हुआ करते थे. दिग्विजय सिंह उनसे मिलने गए. कहा कि किसानों के लिए कुछ कीजिए. पर चिदंबरम ने उन्हें छूंछे ही लौटा दिया.
कुल जमा दिग्विजय सरकार न गोलीकांड की जिम्मेदारी ले रही थी. न किसानों की मदद कर रही थी. न कोई राहत राशि देने के मूड में नज़र आ रही थी. लोग इस बात से भी भड़के हुए थे जो बैतूल कलेक्टर ने पहले कभी अपनी रिपोर्ट में कही थी, उन्होंने कहा कि किसानों की फसल का 37 पैसे से ज्यादा का नुकसान नहीं हुआ है. इसलिए आरबीआई के नियम के मुताबिक़ किसान किसी सहायता के पात्र नहीं हैं.
पुलिस का वर्जन ये था कि पुलिस पर जब पत्थर फेंके गए तब उन्होंने गोलियां चलाई. गोली एडीएम के कहने पर चली थी. कुल दो बार गोली चली, पहली बार हवाई फायर किए गए, जिसमें 88 राउंड गोली चली. दूसरी बार गोलियां तब चलीं जब सरकारी कर्मचारियों के मरने की नौबत आ गई. उस बार की 46 राउंड फायरिंग में लोग मारे गए. इस पूरी हिंसा के समय एसपी खुद घायल हुए उनके माथे और आंख पर चोट आई थी. पुलिस का आरोप ये भी था कि लोगों ने एक पुलिस वाले से सर्विस रिवाल्वर और एक पुलिस वाले से रायफल छीनने का काम भी किया था.
सुनीलम को भी टारगेट किया गया. कहा गया कि उन्होंने अपनी पॉलिटिक्स चमकाने के लिए किसानों का यूज किया. कहा गया कि वो किसानों से पैसा लेते थे और समिति में पंजीयन का सुविधाएं दिलाने की बात अखते थे. ये भी कहा गया कि भोले-भाले किसानों को आंदोलन करने के लिए ताप्ती (नदी) मां की कसम दिलाई जाती थी. बाद में इस मामले में 250 से अधिक किसानों पर 66 मुकदमें दर्ज हुए. सुनीलम को भी जेल भेज दिया गया. इस केस के 14 साल बाद मामले का फैसला आया था. तारीख थी 18 अक्टूबर 2012. सुनीलम समेत तीन लोगों को सात साल की जेल हुई. लगभग 4 महीने जेल में रहने के बाद हाईकोर्ट के आदेश पर उन्हें छोड़ दिया गया.