नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में कहते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ ग़रीबों और किसानों का है, लेकिन उनके कार्यकाल में किसान आत्महत्या की दर बढ़ गई.
लोकसभा के लिए हो रहे चुनाव प्रचार के दौरान भाजपा के प्रधानमंत्री पद के प्रत्याशी के तौर पर नरेंद्र मोदी हर सभा में कहते थे कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ ग़रीबों और किसानों का है. लेकिन उनके प्रधानमंत्री बनते ही उद्योगपति गौतम अडाणी को छह हज़ार करोड़ का सरकारी क़र्ज़ दिलवाना उनकी शुरुआती बड़ी घोषणाओं में से एक थी.
तब से वे दुनिया भर में घूम-घूम कर पूंजीपतियों को भरोसा दे रहे हैं कि उनकी सरकार पूंजीपतियों को पूरी सुरक्षा देगी. हाल ही में जब विकास दर क़रीब दो प्रतिशत नीचे चली गई, उसी दौरान वे अपने विदेश दौरे पर हर देश में यह कहते सुने गए कि भारत उद्योग और निवेश करने वालों के लिए सबसे सुरक्षित है.
जबकि, इस साल की शुरुआत में ही राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों में बताया गया कि नरेंद्र मोदी के शासन काल में 2014-15 के दौरान किसानों के आत्महत्या करने की दर 42 प्रतिशत बढ़ गई है.
राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, पिछले 22 सालों में देश भर में तक़रीबर सवा तीन लाख किसान आत्महत्या कर चुके हैं. इस दौरान देश की सरकारों ने किसानों से वादा तो बहुत किया, लेकिन किसानों के पास मरने के सिवा कोई चारा नहीं है. भारत के कई राज्यों में हज़ारों की संख्या में किसान क़र्ज़, फ़सल की लागत बढ़ने, उचित मूल्य न मिलने, फ़सल में घाटा होने, सिंचाई की सुविधा न होने और फ़सल बर्बाद होने के चलते आत्महत्या कर लेते हैं.
भाजपा ने लोकसभा चुनाव और राज्यों के चुनाव के पहले किसानों का क़र्ज़ माफ़ करने का वादा ज़ोर शोर से किया. भाजपा को निश्चित तौर पर इसका फ़ायदा मिला. अब खस्ता हाल में पहुंच चुके किसान भाजपा सरकार से राहत मांग रहे हैं. लेकिन सरकार बनने के बाद भाजपा अपने वादे से पलटती नज़र आई. अब किसान सड़क पर हैं और भाजपा की यूटर्न नीति उसके गले की हड्डी बनती दिख रही है.
देश में हर साल हज़ारों किसान क़र्ज़, फ़सल ख़राब होने, ग़रीबी, भुखमरी आदि कारणों से आत्महत्या करते हैं. हाल के वर्षों में यह संख्या बढ़ी है, लेकिन सरकारें देश की त्रासदी को नज़रअंदाज करती रही हैं. चुनाव के दौरान किसानों को फ़ायदा पहुंचाने, फ़सलों का उचित दाम देने जैसा वादा किया जाता है, और बाद में यह कहकर सरकार पलट जाती है कि किसानों के क़र्ज़ माफ़ करना संभव नहीं है.
उत्तर प्रदेश चुनाव जीतने के बाद पहली कैबिनेट मीटिंग में ही किसानों क़र्ज़ माफ़ करने का वादा था. भाजपा ने ऐसा नहीं किया. जब चारों तरफ से सवाल उठने लगे तो योगी आदित्यनाथ सरकार ने घोषणा तो कर दी, लेकिन अभी तक किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की घोषणा ज़मीन पर नहीं उतर सकी है. केंद्र सरकार और बैंक बजट न होने का रोना रो रहे हैं और राज्य अपनी कमज़ोर वित्तीय स्थिति के चलते हाथ खड़े कर रहे हैं.
दूसरी तरफ़, देश में किसान आत्महत्याओं की संख्या में बढ़ोत्तरी हो रही है. राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2015 में कृषि से जुड़े 12602 लोगों यानी किसानों और कृषि मज़दूरों ने आत्महत्या की. 2014 में यह संख्या 12360 थी. इसके पहले 2013 में 11772 और 2012 में 13754 और लोगों ने आत्महत्या की थी. 2016 का आंकड़ा अभी जारी नहीं हुआ है. लेकिन जिस तरह से राज्यों से किसानों द्वारा आत्महत्या करने की ख़बरें आई, उस आधार पर कहा जा सकता है कि यह आंकड़ा बढ़ा ही है.
अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो इस आंकड़े में भी दो तरह के आंकड़े जारी करता है. किसान और किसानी से जुड़े लोग यानी कृषि मज़दूर. सिर्फ़ किसानों की ही बात करें तो जनवरी, 2017 के आंकड़ों के मुताबिक, किसान आत्महत्याओं में लगातार वृद्धि हो रही है और केंद्र में नरेंद्र मोदी सरकार आने के बाद किसानों की आत्महत्या की दर 42 फ़ीसदी बढ़ गई है.
ब्यूरो के मुताबिक, 2014 में 5650 किसानों ने आत्महत्या की थी, 2015 में 8,007 किसानों ने आत्महत्या की. इनमें महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा 3030 किसानों ने आत्महत्या की.
पिछले कई बरसों महाराष्ट्र में सबसे ज़्यादा किसान आत्महत्या करते हैं. अकेले महाराष्ट्र में 1995 से लेकिन अब तक 60,000 से ज़्यादा किसान आत्महत्या कर चुके हैं.
महाराष्ट्र के बाद तेलंगाना दूसरे और कर्नाटक तीसरे नंबर पर है. देश में जितने किसान आत्महत्याएं करते हैं, उनमें से 94 प्रतिशत मात्र छह राज्यों में हैं. ये राज्य हैं— महाराष्ट्र, तेलंगाना, कर्नाटक, मध्य प्रदेश, आंध प्रदेश और छत्तीसगढ़.
फरवरी, 2017 के अाख़िरी हफ़्ते में मध्य प्रदेश सरकार ने विधानसभा में बताया कि प्रदेश में 16 नवंबर, 2016 से अब तक 1761 लोगों ने आत्महत्या की है. इनमें 287 किसान और कृषि मज़दूर थे और 160 विद्यार्थी थे.
मध्य प्रदेश विधानसभा में कांग्रेस के वरिष्ठ विधायक रामनिवास रावत के प्रश्न के उत्तर में प्रदेश सरकार ने लिखित तौर पर जानकारी दी कि 16 नवंबर, 2016 से इस वर्ष फरवरी तक यानी 3.5 महीने में 106 किसानों और 181 कृषि मज़दूरों ने ख़ुदकुशी की.
इसके पहले पिछले दिसंबर में मध्य प्रदेश विधानसभा के शीतकालीन सत्र में शिवराज सरकार ने जानकारी दी थी कि एक जुलाई 2016 से 15 नवंबर 2016 तक 531 किसानों और कृषि मजदूरों ने प्रदेश में ख़ुदकुशी की है. इस प्रकार पिछले वर्ष में एक जुलाई से फरवरी 2017 तक की अवधि में मध्य प्रदेश में कुल 818 किसान और कृषि मजदूरों ने ख़ुदकुशी की.
जून, 2016 में आए मध्य प्रदेश अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आंकड़ों के मुताबिक, पिछले छह सालों में मध्य प्रदेश में 6594 किसानों ने आत्महत्या की. आत्महत्या करने वाले इन किसानों ने 80 प्रतिशत ने इसलिए आत्महत्या की क्योंकि वे साहूकारों से लिया लोन भुगतान करने में असमर्थ थे.
अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के मुताबिक, 2010 से 2015 के बीच हर दिन तीन किसानों ने आत्महत्या की. आंकड़ों के मुताबिक, मध्य प्रदेश में 2010 में 1227, 2011 में 1326 किसानों ने आत्महत्या की. 2012 और 2013 में भी यह संख्या तकरीबन इतनी ही रही. 2014 में राज्य में 1198 किसानों ने आत्महत्या की, 2015 में यह संख्या 581 रही.
चुनाव से पहले भाजपा ने वादा किया था कि किसानों को उनकी लागत में 50 फ़ीसदी मुनाफ़ा जोड़कर फ़सलों का दाम दिलाया जाएगा. लेकिन सरकार बनाने के बाद मोदी सरकार का पूरा ज़ोर कॉरपोरेट और मैन्यूफैक्चरिंग पर है. सरकार की प्राथमिकता में कृषि और किसान कहीं नहीं हैं. मोदी सरकार ने जितनी योजनाओं की घोषणा की उनमें से कोई भी योजना ऐसी नहीं है जो किसानों को राहत देती हो. जबकि देश की क़रीब 60 प्रतशित जनसंख्या की आजीविका का आधार कृषि क्षेत्र है.
भारत को आज भी कृषिप्रधान देश कहा जाता है. कृषि उपज के आधार पर ही सेंसेक्स के आंकड़े तय होते हैं. फिर भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर है. भारत कृषिप्रधान देश है या किसानों की क़ब्रगाह? किसानों को सड़क पर क्यों नहीं उतरना चाहिए?
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