कहा जाता है कि चोरी करना पाप है, भगवान उसे कभी माफ़ नहीं करता और अगर भगवान के घर में ही चोरी हो जाए तो महापाप होगा। लेकिन इस मंदिर में ऐसा नहीं होता...
जबकि इस मंदिर में चोरी करने पर लोगों की मनोकामना पूरी होती हैं। उत्तराखंड में वैसे तो बहुत मंदिर हैं लेकिन रूडकी के चुड़ियाला गांव स्थित प्राचीन सिद्धपीठ चूड़ामणि देवी मंदिर में नवरात्रों के मौके पर श्रद्धालुओं की भारी भीड़ मत्था टेकने यहां आती है।
यहां लोग दूर दराज से श्रद्धालु आकर मंदिर में प्रसाद चढ़ाकर माता के दर्शन कर मन्नतें मांगते हैं। मंदिर के पुजारी पंडित अनिरुद्ध शर्मा के अनुसार यह प्राचीन मंदिर सिद्धपीठ के रूप में मान्यता रखता है।
चोरी करने की प्रथा और पुत्र प्राप्ति को लोकड़ा चढ़ाने की है प्रथा। पुत्र प्रप्ति की इच्छा रखने वाले जोड़े को मंदिर में आकर माता के चरणों से लोकड़ा (लकड़ी का गुड्डा) चोरी करके अपने साथ ले जाए तो बेटा होता है और पुत्र रत्न प्राप्ति के बाद अषाढ़ माह में अपने पुत्र के साथ माता - पिता को मां के दरबार में मत्था टेकने आना होता है। जहां भंडारे के साथ ही जोड़े द्वारा ले जाए हुए लोकड़े के साथ ही एक अन्य लोकड़ा भी अपने पुत्र के हाथों से चढ़ाने की प्रथा सदियों से चली आ रही है।
गांव की प्रत्येक बेटियां भी विवाह के पश्चात पुत्र प्राप्ति के बाद चूड़ामणि देवी मंदिर में लोकड़ा चढ़वाना नहीं भूलती हैं। यहां के लोगों का कहना है कि एक बार लंढौरा रियासत के राजा जंगल में शिकार करने आए हुए थे। जंगल में घूमते-घूमते उन्हें माता की पिंडी के दर्शन हुए।
राजा के यहां कोई पुत्र नहीं था। राजा ने उसी समय माता से पुत्र प्राप्ति की मन्नत मांगी। पुत्र प्राप्ति के बाद राजा ने सन् 1805 में मंदिर का भव्य निर्माण कराया। देवी के दर्शनों के लिए उपस्थित हुई रानी ने माता शक्ति कुंड की सीढ़ियां बनवाई।
यहां के बारे में कहा जाता है कि माता सती के पिता राजा दक्ष प्रजापति द्वारा आयोजित यज्ञ में भगवान शिव को आमंत्रित नहीं किए जाने से क्षुब्ध माता सती ने यज्ञ में कूदकर यज्ञ को विध्वंस कर दिया था।
भगवान शिव जिस समय माता सती के मृत शरीर को उठाकर ले जा रहे थे, उसी समय माता सती का चूड़ा इस घनघोर जंगल में गिर गया था। इस मान्यता के साथ यहां माता की पिंडी स्थापित होने के साथ ही भव्य मंदिर का निर्माण किया गया।
जिस जगह पर आज भव्य मंदिर बना हुआ है पहले यहां घनघोर जंगल हुआ करता था, जहां शेरों की दहाड़ सुनाई पड़ती थी। पुराने जानकार बताते हैं कि माता की पिंडी पर रोजाना शेर भी मत्था टेकने के लिए आते थे।
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